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जा बाबुल घर आपने, मैं तो चली पिया के देस..। अमीर खुसरो के दोहे की ये पंक्ति आज पंजाब में ब्याही जाने वाली मुटियारों की आवाज लगती है। विदा होती लड़किया अपने पिता से यही कहती लगती हैं। दरअसल इसे स्टेटस सिंबल कहें, सामाजिक ताने बाने में आया ढीलापन या शादियों के लिए समय व इंतजामात की कमी के कारण मजबूरी में लोग अब बेटियों को घर से नहीं, मैरिज पैलेसों से विदा करते हैं।
घर में तो शादी की रस्म बस नाम को ही होती है। परंपरा व संस्कृति में यह बदलाव शहरों ही नहीं, गावों में भी आया है। वह भी बड़े पैमाने पर। मनोविज्ञानी इसे स्टेटस सिंबल मानते हैं तो समाजशास्त्री परंपराओं के लिए खतरा।
दुल्हन बनी बिटिया का घर-आगन, सखी-सहेलिया, पुरानी यादें सब छूट जाती हैं, लेकिन बाबुल के घर से विदा होने की बरसों पुरानी परपंरा की लालसा पूरी नहीं हो पाती है। शादी का दिन तय करने से पहले ही मैरिज पैलेसों और होटलों की बुकिंग हो जाती है। होटलों व मैरिज पैलेसों में 20 हजार से एक लाख रुपये खर्च कर एक ही दिन में विवाह की सारी रस्में पूरी कर दी जाती हैं।
गौरतलब है कि राज्य में पिछड़े जिलों की श्रेणी में आने वाले बठिंडा जिले में ही करीब 35 होटल और 20 से अधिक मैरिज पैलेस खुल चुके हैं, जबकि प्रदेश भर में करीब ढाई हजार होटल और 1800 मैरिज पैलेस हैं, जहा शादी के लिए पूरा इंतजाम होता है। जीत मैरिज पैलेस के मालिक सरूप चंद सिंगला ने शनिवार को इस बारे में पूछे जाने पर कहा कि समाज में मैरिज पैलेसों में विवाह करने का कल्चर बढ़ रहा है। शादी के सीजन में एडवास बुकिंग भी होती है।
सरपंच सुरजीत सिंह का कहना है कि गावों में पहले की तरह अब वो बात नहीं रही कि किसी लड़की के विवाह पर पूरा गाव कई-कई दिन तक तैयारी में जुटा रहता था। अब किसी के पास समय नहीं है। सब मेहमान के तौर पर शामिल होना चाहते हैं। समय हो तो वैसे इंतजामात नहीं हो पाते जैसे मैरिज पैलेसों व होटलों में हो जाते हैं। बाराती गाव के कल्चर से नहीं, माडर्न शादी चाहते हैं।
हाल ही में बेटी विदा कर चुके सुनील दंपति का कहना है कि घर से शादी करते तो एक तो सही आवभगत न हो पाती, दूसरे पूरा घर ही अस्त-व्यस्त हो जाता। बेटी अपने घर चली गई, रिश्तेदार भी पैलेस से ही लौट गए और हम भी लौट कर दो-तीन दिन आराम करने के बाद अब अपने रूटीन के कामकाज में वैसे ही लग गए। घर से शादी की होती तो अभी तक व्यस्त होते और थकान से चूर। ऊपर से किसकी क्या नाराजगी झेलनी पड़ती-क्या पता।
मनोविज्ञानी डा. सुनील गुप्ता कहते हैं कि रिश्तेदारों, दोस्तों और लड़के वालों पर प्रभाव दिखाने के लिए मैरिज पैलेसों में विवाह का कल्चर तेजी से बढ़ रहा है। अभिभावक आजकल शादियों में अधिक पैसा खर्च करने लगे हैं। लोगों को रुतबा दिखाने के लिए वे बड़े से बड़ा मैरिज पैलेस या होटल बुक करते हैं, ताकि समाज में उनकी प्रतिष्ठा बढ़े, लेकिन कई बार खर्चा क्षमता से अधिक होने पर उनकी आर्थिक स्थिति गड़बड़ा जाती है। कई बार तो लोन लेकर बड़े पैलेसों या होटलों में बेटियों की शादी की जाती है और उसके बाद अभिभावक ऋणी हो जाते हैं।
पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला के सेवानिवृत्त प्रोफेसर, प्रसिद्ध समाजशास्त्री व भाषा विज्ञानी सुरजीत सिंह ली कहते हैं कि मैरिज पैलेसों में विवाह व वहीं से बेटी की विदाई से सामाजिक कद्रों-कीमतों का नुकसान हो रहा है। ऐसे विवाह होने पर सामाजिक भागीदारी नहीं होती तथा ऐसे में बेटी का विवाह करवाने वाला परिवार समाज से कटता चला जाता है। ऐसे विवाह कार्यक्रम कोई परपंरा नहीं बल्कि महज एक सेलीब्रेशन पार्टी बनकर रह गए हैं। घरों में होने वाले इस तरह के आयोजन समुदाय व समाज को बाधकर रखते हैं, लेकिन अगर इसी तरह मैरिज पैलेस में विवाह कर बेटी की विदाई होती रही तो फिर इससे सामाजिक भाईचारे को नुकसान तो होगा ही, साथ ही अमीर संस्कृति और परंपरा महज सपना बनकर रह जाएगी। इसका समाज पर काफी बुरा प्रभाव पड़ेगा।
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