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*हम तो अकेले ही चले थे जानिब ए मंजिल मगर, लोग जुडते गए और कारवां बनता गया-*
* कौन कहता है कि आसमां में सुराग नहीं होता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो *
सफल व्यक्ति के लिए ऐसे ही न जानें कितनी उक्तियों से हमारी किताबें अटी पडी हैं। संभव है कि कुछ लोगों ने अपनी निजी जिंदगी में सफलता अर्जित की हो और फिर वह समाज के लिए प्रेरणास्रोत बनें हो लेकिन आज में आपको ऐसे शख्स की सफल कहानी बताने जा रहा हूं जिसने अपने लिए नहीं बल्कि औरों के लिए सफलता की ऐसी दास्तान लिखी, जिसका शायद कोई कर्जा नहीं चुका सकेगा।
उपरोक्त उक्तियों की परछाई में कुछ ऐसा कमाल करने वाले पंजाब के बठिंडा जिले के रामपुरा क्षेञ के एक शख्स के बारे में मैं आपको बताने जा रहा हूं, जिसने साबित किया कि परिस्थितियां चाहे जैसी हों लेकिन इंसान मन में कुछ ठान ले व पूरी मेहनत से उस दिशा में प्रयास करे तो कुछ भी असंभव नहीं।
हां, बात 35 बरस पहले 1975 की है। उनकी मासूम बेटी रजनी सख्त बीमार हो गई। शरीर में सिर्फ दो ग्राम खून बचा था। मौत के कगार पर पहुंची बच्ची को तुरंत खून की जरूरत थी। प्रिंसिपल हजारी लाल बंसल व उनके ममेरे भाई ने पहली बार एक-एक यूनिट रक्तदान किया। बच्ची की स्थिति में सुधार न हुआ। रक्त और चाहिए था। जगह-जगह भटकते रहे। कहीं रक्त न मिला। फिर रजनी को चंडीगढ़ स्थित पीजीआई ले जाया गया। वहां उसकी जिंदगी बच गई। पढ़कर भले ही यह आम बात लगे, लेकिन इस प्रकरण ने मालवा में रक्तदान मुहिम की नींव रख दी, जो आज परंपरा बनने की श्रेणी में पहुंचती जा रही है। रक्त न मिलने पर मासूम रजनी की तड़प ने प्रिंसिपल हजारी लाल बंसल को अंदर तक झकझोर कर रख दिया। फिर उन्होंने प्रण कर लिया कि चाहे कुछ भी हो, भविष्य में वह किसी इंसान को रक्त की कमी से मरने की कगार पर पहुंचने की नौबत नहीं आने देंगे। फिर ऐसी रक्तदान मुहिम की शुरूआत हुई जो मौजूदा वक्त में पूरे मालवा क्षेत्र में आंदोलन की शक्ल अख्तियार कर चुका है। मालवा में रक्तदान मुहिम के प्रणेता माने जाते श्री बंसल की बदौलत हजारों रक्तदानियों का उदय हो चुका है। आरंभिक दौर में श्री बांसल ने अपने दोस्तों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों व परचितों को रक्तदान के लिए प्रेरित किया। उनकी लगन व मेहनत के बलबूते वर्ष 1978 में क्षेत्र में पहला रक्तदान कैंप लगा। बस फिर उन्होंने मुड़कर नहीं देखा। मालवा क्षेत्र में रक्तदान मुहिम को उदय करने वाले प्रिंसिपल हजारी लाल बांसल को वर्ष 1984 में रेडक्रास सोसायटी और वर्ष 1996 व 2008 में इंडियन सोसायटी ऑफ ब्लड ट्रांसफ्यूजन उन्हें नेशनल अवार्ड से सम्मानित कर चुकी है। प्रिंसिपल हजारी लाल बंसल की इस मुहिम को युनाइटेड वेलफेयर सोसायटी के संरक्षक विजय भट्ट ने संभाल लिया। उनकी संस्था ने जन्मदिवस, परिजन की मौत के बाद आत्मिक शांति के लिए रखे भोग, बरसी व शहीद सैनिकों के श्रद्धाजंलि समागम पर रक्तदान कैंप लगाने की परंपरा शुरू कर दी। आज स्थिति यह है कि संस्था के कार्यकर्ता पंजाब के अलावा चंडीगढ़, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान व हरियाणा में जाकर जरूरतमंदों को रक्त मुहैया करवाते हंै। इसी संस्था के सदस्य गोरा दूध वाला ने बहन की शादी के अवसर पर अपने गांव कोटशमीर में रक्तदान कैंप से बारात का स्वागत किया। अब तो कई संस्थाओं में रक्तदान में बढ़-चढ़कर योगदान डालने के लिए सकारात्मक प्रतिस्पर्धा शुरू हो चुकी है। 102 बार रक्तदान कर चुके विनोद बंसल भी प्रिंसिपल हजारी लाल बंसल को अपना आदर्श मानते हैं। 75 वर्ष की आयु में पहुंच चुके हजारी लाल बंसल कहते हैं कि मुझे तसल्ली होती है कि अब किसी की बेटी रक्त की कमी से नहीं तड़फेगी। लोग खुद भी जागरूक हो चुके हैं। रजनी भी अब राजस्थान के हनुमानगढ़ में गृहस्थी में सुखी जीवन व्यतीत कर रही है।
आज जीवन के अंतिम पडाव में पहुंच चुके हजारी लाल बंसल से जब भी उनके कदम के आंदोलन बनने की बात कही जाती है तो उनका चेहरा जरुर चमक उठता है लेकिन वह इसका पूरा श्रेय रक्तदानियों को ही देते हैं।
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