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बठिंडा [मनीष शर्मा]। कवि सुमित्रानंदन पंत ने अपनी एक कविता में जिसे शोषित जन का सेवक, पालक और स्वदेश के धन का रक्षक कहा था कि राष्ट्रपिता महात्मा गाधी का वह परम सखा अब थम गया लगता है। अब उसका सुरीला सुर केवल गांधी जयंती तक ही सीमित रह गया है। यही वजह है कि आज चरखा तैयार करने वाले कारीगर मुफलिसी में दिन काट रहे हैं।
पिछले सप्ताह बॉलीवुड महानायक अमिताभ बच्चन ने अहमदाबाद में साबरमती आश्रम पहुंचकर चरखे पर हाथ आजमाया तो पूरे देश में चरखे का खूब प्रचार हुआ, लेकिन असलियत में राष्ट्रपिता महात्मा गाधी ने जो ब्रिटिश हुकूमत के विरोध में चरखे से सूत कातकर स्वदेशी वस्त्र पहनने का आह्वान कर देशवासियों में स्वराज एवं आजादी की अलख जगाई थी, वह वैश्वीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भीड़ में काफी पीछे छूट चुका है। गुलामी के वक्त स्वतंत्रता आदोलन का प्रतीक और फिर रोजगार तथा पंजाब में विरासत का प्रतीक चरखा अब सजावटी सामान की श्रेणी में आ चुका है।
चरखा निर्माण में पंजाब के साथ राजस्थान व हरियाणा में प्रसिद्ध बठिंडा के गाव जोधपुर पाखर की फिजाओं में अब चरखे की घुरघुर की आवाज नहीं बल्कि इसे बनाने वाले कारीगरों की मुफलिसी की करुण व्यथा गूंजती है। मालूम हो कि जोधपुर पाखर गांव के हर घर में पहले चरखे की कारीगरी होती थी। वक्त ने करवट ली और मशीनीकरण का युग आ गया। बस, अब चरखे बनाने वाले हाथ अपनी आजीविका के बंदोबस्त के लिए किसी दूसरे काम में लग गए। कुछेक कारीगर जो इस काम में लगे हैं, वह भी मुफलिसी का शिकार हैं लेकिन उम्रदराज होने के कारण कोई और काम नहीं आता तो मजबूरन चरखा बनाने में लगे रहते हैं।
पंजाब में तो चरखे को शगुन माना जाता था। नवविवाहिता को दहेज में धन, पशु व दूसरे सामान के साथ चरखा भी दिया जाता था। पंजाब में पहले गाव की महिलाएं एक जगह पर एकत्र होकर चरखे से सूत कातती थी। इस परंपरा को त्रिजन कहा जाता था लेकिन अब यह परंपरा भी स्मृति शेष बनती जा रही है। कारीगर कुलवंत सिंह कहते हैं कि चरखा 6 इंच [खिलौना] से लेकर 32 इंच तक लंबा बनता है। 32 इंच लंबा चरखा बनाने में प्रतिदिन दस घटे काम कर दो-तीन दिन का वक्त लगता है। इसकी लागत तो 700 रुपये है लेकिन बिक्री महज 1200 रुपये में होती है और वह भी महीने में मुश्किल से एक-दो की ही। कारीगर रूप सिंह कहते हैं कि महिलाएं चरखे पर धागा कातकर खद्दर का कपड़ा तैयार करती हैं।
यह कपड़ा शरीर को गर्मियों में ठंडक व सर्दियों में गर्माहट का अहसास देता है। 25 वर्षो से इस काम में लगे कारीगर जतिंदर सिंह कहते हैं कि चरखा बनाने में रहड़ू की लकड़ी अब पंजाब में नहीं मिलती। इसके लिए हरियाणा व राजस्थान का रुख करना पड़ता है। खादी वस्त्र पहनने वाले स्वतंत्रता सेनानी मास्टर मंगत राय कहते हैं कि सरकारों की नजरअंदाजी से यह नौबत आई है। वह कहते हैं कि बापू का देश भले ही इसे भूल रहा हो लेकिन पड़ोसी मुल्क नेपाल के पर्यटन स्थल पाटन और लाजिमपाट के महाघुटी बाजार में बापू का चरखा पूरी शिद्दत से चलता है।
यही नहीं, औद्योगिक देश के रूप में विकसित जापान के लोग भी मन की शाति के लिए योग, प्राणायाम व किताबें पढ़ने के साथ-साथ चरखा चलाते हैं। वहा जयपुर व अहमदाबाद से चरखे भेजे जाते हैं।
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